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छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले बढ़ गए | पिछले दिनों तीन दिनों के भीतर चार नक्सली हमले हुए , जिनमें ख़ासकर सुरक्षा बलों के जवान निशाना बने | पुलिस और सुरक्षा बलों की संपत्तियां तबाह व बर्बाद हुईं | अब यह बात छिपी नहीं रही कि पुलिस और सुरक्षा बलों में मनोबल की कमी और कायरता ऐसे हमलों के सबब बने हुए हैं | मई 13 में कांग्रेसी नेताओं पर हमले के सिलसिले में बस्तर जिले के दरभा थाने के तत्कालीन टीआई यूके वर्मा के बयान के प्रतिपरीक्षण में यह बात सामने आई है कि नक्सलियों के डर से थाने से निकले जवान घटनास्थल से तीन किलोमीटर दूर मंदिर के पास दुबके रहे। उन्हें कांग्रेसी नेताओं की सुरक्षा से ज्यादा अपनी जान की चिंता थी। जब गोलियों की आवाज बंद हो गई थी और नक्सलियों के जाने की पुष्टि हुई, तब जवान सर्चिंग करते हुए घटनास्थल पहुंचे। स्वचलित हथियार होने के बाद भी महज तीन किलोमीटर का फासला एक घंटे में तय करने के सवाल पर तत्कालीन टीआई ने यह सफाई दी कि दोनों ओर घाटी और मोड़ होने के कारण वहां तेजी से नहीं पहुंचा जा सकता था। झीरम घाटी कांड की जांच के लिए गठित विशेष न्यायिक आयोग के अध्यक्ष जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा के कोर्ट में गत 17 मार्च 15 को दरभा थाने के तत्कालीन टीआई यूके वर्मा के बयान का प्रतिपरीक्षण हुआ। उन्होंने बताया कि दरभा थाने से 24 मई 13 को सीआरपीएफ की 80 बटॉलियन को बल उपलब्ध कराने के लिए पत्र लिखा गया था। देश में बढ़ती नक्सल समस्या पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार चिंतित है , फिर भी प्रभावी क़दम का न उठाना चिंताजनक है | गत वर्षांत के सुकमा कांड के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नक्सलियों को ‘राष्ट्र विरोधी तत्व’ क़रार दिया और कहा कि इस ‘अमानवीय’ हमले की निंदा करने के लिए शब्द ही नहीं हैं। पहले के प्रधानमंत्री भी नक्सल विरोधी बयान देते रहे , लेकिन कारगर क़दम कभी न उठ सके | 6 जून 13 को नई दिल्ली में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ . मनमोहन सिंह ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हुए नक्सल हमले का जिक्र करते हुए कहा था कि इस तरह की हिंसा का हमारे लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है। केंद्र और राज्यों को साथ मिल कर काम करने की जरूरत है ताकि सुनिश्चित हो सके कि इस तरह की घटना फिर से न होने पाए। उन्होंने कहा था कि माओवादियों के खिलाफ सक्रियता से सतत अभियान चलाने और वामपंथी उग्रवाद प्रभावित इलाकों में विकास और शासन से जुडे मुद्दों के समाधान की दो-स्तरीय रणनीति को और मजबूत करने की जरूरत है। गौरतलब है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री के वक्तव्य पर ध्यान नहीं दिया गया और दंतेवाड़ा में 2010 में सीआरपीएफ के 76 जवानों के खूनी नरसंहार की यादें 11 मार्च 14 को एक बार फिर ताजा हो गईं , जब लगभग 200 नक्सलियों के गिरोह ने एक बार फिर झीरम घाटी के उसी इलाके में सुरक्षाबलों पर हमला बोलकर 15 जवानों सहित 16 लोगों की ताबड़तोड़ गोलीबारी कर हत्या कर दी गई। नक्सलियों ने सुरक्षा बलों से 15 स्वचालित हथियार भी लूट लिए और तीन वाहनों में आग लगा दी। करीब तीन घंटे तक चली मुठभेड़ के बाद वे मृत पुलिसकर्मियों के हथियार और गोला बारूद भी लेकर फरार हो गए। बताया जाता है कि दिनदहाड़े हुए इस हमले को दंडकारण्य जोनल कमेटी की दरभा घाटी इकाई के रामन्ना-सुरिंदर-देवा की तिकड़ी ने अंजाम दिया । यह हमला जिस स्थान पर हुआ था , वह इससे पहले 23 मई 2013 को कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर हुए हमले से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर है। उस हमले में नक्सलियों ने महेंद्र कर्मा सहित राज्य कांग्रेस के समूचे नेतृत्व का लगभग सफाया कर दिया था। इसी गिरोह ने तत्कालीन छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस प्रमुख नंद कुमार पटेल और उनके बेटे और कर्मा सहित 25 लोगों की जान ली थी। इससे पहले 6 अप्रैल 2010 की तारीख छत्तीसगढ़ के इतिहास में एक काली तारीख है। इस दिन
नक्सलियों ने ताड़मेटला में घात लगाकर सीआरपीएफ के 76 जवानों को अपना निशाना बनाया था। उस दिन सीआरपीएफ के 120 जवान सर्चिंग के लिए निकले थे, उनके वापस लौटने के रास्ते में घात लगाकर बैठे 1000 से ज्यादा नक्सलियों ने ब्लास्ट करके जवानों पर हमला कर दिया, जवान संभल पाते इससे पहले ही नक्सलियों ने घात के पीछे से अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी। काफी देर तक चली इस मुठभेड़ में 76 जवान शहीद हुए थे और 8 नक्सली मारे गए थे। हमले के बाद नक्सलियों ने जवानों के हथियार और जूते भी लूट लिए थे। यह अर्ध सैनिकों पर हुआ देश का सबसे बड़ा नक्सली हमला था। कांग्रेस नेताओं पर हमले के बाद नई दिल्ली में सीआरपीएफ के अधिकारियों ने हमले के लिए सुरक्षा चूक को भी जिम्मेदार ठहराया था । उन्होंने बताया कि सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस की 48 सदस्यीय संयुक्त टीम ने मानक परिचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पूरी तरह उल्लंघन किया। यह टीम रोजाना निर्माण स्थल पर जा रही थी और एक ही रास्ते से जा रही थी। नक्सल रोधी अभियान में किसी एक ही रास्ते से बार बार न गुजरने के सिद्धांत का यहां उल्लंघन हुआ। ऐसा लगता है कि सुरक्षाकर्मियों की आवाजाही पर माओवादियों की निगाह थी। ऐसे में उन्हें सुनियोजित हमले के लिए पर्याप्त समय मिल गया। अक्सर नक्सली मुठभेड़ों में एक ही प्रकार के सवाल उठते हैं , जिनको कभी हल नहीं किया जाता | इनमें पहला यह कि नक्सली हमले में क्रास फायरिंग होती है पर अक्सर कोई नक्सली मारा नहीं जाता ? दूसरा सवाल यह कि जब पता है की नक्सली इलाका है तो वहां का खुफ़िया विभाग और सूचना – तंत्र इतना कमजोर और बेबस क्यों रहता है ? प्रायः देख जाता है कि नक्सली सौ -दो सौ की संख्या में जमा होकर घात लगाते हैं, पर उनकी खबर वारदात तक नहीं मिल पाती ! ? तीसरा सवाल यह कि हमला तीन – तीन घंटे तक चलता है , पर वहां अतिरिक्त जवान क्यों नहीं पहुँचते चाहे पुलिस थाने निकट ही क्यों न हों ? इसी क्रम में यह बात भी कि नक्सली वारदात बाद काफी देर गन,कारतूस,जूते और दीगर सामान लूटते रहते हैं और कोई अतिरिक्त फ़ोर्स नहीं पहुंचती ! इस विषम परिस्थिति में क्या यह सच नहीं कि अवसरवादी , ओछी और लचर राजनीति ने इस संकट को नासूर में तब्दील कर डाला है ? जब हम देश के आंतरिक दुश्मनों के ख़िलाफ़ प्रभावी , ठोस और कठोर क़दम नहीं उठा सकते , विदेशी दुश्मनों से कैसे निबट पायेंगे ?
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